आख़िरी कॉल – भाग 1

वाराणसी के पुराने मोहल्ले “लाट भैरव” में रात का सन्नाटा था। घड़ी की सुइयां 11:48 दिखा रही थीं। गली के नुक्कड़ पर बिजली के खंभे की लाइट झिलमिला रही थी। उसी गली के आख़िरी छोर पर, एक पुराने मकान की तीसरी मंज़िल से किसी महिला की चीख सुनाई दी — इतनी दर्दनाक, कि जैसे किसी ने उसके सीने में खंजर घोंप दिया हो।
पास के घरों की खिड़कियाँ खुलीं, लोग बाहर निकले, पर तीसरी मंज़िल की उस बालकनी पर कोई नहीं दिखा। केवल एक पुरानी लकड़ी की झूले वाली कुर्सी हवा में हिल रही थी।
पाँच मिनट बाद, पुलिस वैन गली में दाखिल हुई। इंस्पेक्टर अभिषेक राणा, जो वाराणसी क्राइम ब्रांच के सबसे तेज़ दिमाग वाले अफसर माने जाते थे, मौके पर पहुँचे। उनके साथ सब-इंस्पेक्टर सोनू और दो कांस्टेबल थे।
दरवाज़ा अंदर से बंद था। खटखटाने पर कोई जवाब नहीं मिला, तो दरवाज़ा तोड़ा गया। अंदर घुसते ही सामने के कमरे में, फर्श पर एक महिला का शव पड़ा था — उम्र लगभग 28 साल, चेहरे पर डर और दर्द के भाव जैसे आखिरी सांस तक उसने किसी को पहचानने की कोशिश की हो।
उसके मोबाइल की स्क्रीन पर एक कॉल कटे हुए दिख रही थी। कॉल लॉग में सिर्फ लिखा था — “Last Call” — और नंबर सेव नहीं था।
पहली नज़र में केस
अभिषेक ने शव के पास झुककर देखा — गले पर लाल निशान, जैसे रस्सी या दुपट्टे से घोंटा गया हो। लेकिन कमरे में जबरन घुसने के कोई निशान नहीं थे। खिड़कियाँ अंदर से बंद थीं।
मोबाइल को सील करते हुए अभिषेक ने पूछा —
“नाम क्या है इसका?”
पास खड़े मकान मालिक ने कांपते हुए कहा —
“सर… ये नेहा वर्मा थी, यहाँ अकेले किराए पर रहती थी। चार महीने पहले ही आई थी।”
“परिवार?”
“कोई मिलने नहीं आता था, बस कभी-कभी एक लड़का आता था, रात में। और… एक बार मैंने सुना था कि ये किसी से कह रही थी — ‘मुझे सबूत मिल गए हैं, अब तेरा खेल ख़त्म’…”
अभिषेक के कान खड़े हो गए। सबूत? किसके खिलाफ?
मोबाइल का राज़
क्राइम सीन सील होने के बाद, अभिषेक ने मोबाइल की कॉल हिस्ट्री देखी।
आखिरी कॉल रात 11:46 पर आई थी — कुल 37 सेकंड चली।
नंबर की ट्रूकॉलर आईडी खाली थी, लेकिन डिटेल चेक करने पर पता चला कि ये नंबर 3 महीने पहले एक रोहित अग्रवाल के नाम पर रजिस्टर हुआ था, जो लखनऊ का रहने वाला था।
अभिषेक ने तुरंत लोकेशन ट्रेस करने का आदेश दिया — और लोकेशन निकली वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन के पास का एक सस्ता लॉज।
लॉज में पीछा
रात 1:10 पर, अभिषेक और टीम लॉज पहुँचे। रिसेप्शन पर बैठे लड़के ने कहा —
“रोहित अग्रवाल? हाँ साहब, कमरे नंबर 207 में हैं। पर… अभी बाहर गए हैं, शायद स्टेशन की तरफ।”
अभिषेक ने तुरंत स्टेशन की तरफ गाड़ी मोड़ी। प्लेटफार्म नंबर 3 पर, एक लंबा, दुबला आदमी खड़ा था, मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था।
अभिषेक उसके पास पहुँचे, मगर जैसे ही उसने पुलिस की वर्दी देखी, वह भागा।
पीछा करते हुए वे प्लेटफार्म के किनारे तक पहुँच गए। अचानक, वह आदमी पटरी पर कूद गया और दूसरी तरफ अंधेरे में ग़ायब हो गया।
अभिषेक ने उसके छोड़े हुए बैग को उठाया — अंदर सिर्फ एक पुराना कैमरा था, और मेमोरी कार्ड में 142 फोटो।
फोटो का डरावना सच
कार्ड को लैपटॉप में डालते ही, सब-इंस्पेक्टर सोनू की आँखें फैल गईं।
“सर… ये सारे फोटो एक ही लड़की के हैं — नेहा वर्मा के… लेकिन कुछ में वो डरी हुई है, कुछ में जैसे किसी ने छुपकर खींचे हों। और सर, ये देखिए…”
आखिरी फोटो में नेहा खिड़की के पास खड़ी थी, और उसके पीछे एक परछाईं थी — चेहरा धुंधला, लेकिन हाथ में कुछ चमकता हुआ था… शायद चाकू।
पिछले केस से कनेक्शन
अभिषेक को यह चेहरा जाना-पहचाना लगा। उन्होंने 6 महीने पहले का एक केस याद किया — रिया शर्मा नाम की लड़की की हत्या, जिसमें भी आरोपी नहीं मिला था, और कमरे में कोई तोड़फोड़ नहीं हुई थी।
दोनों केस में एक चीज़ कॉमन थी —
हत्या से पहले पीड़िता ने किसी को कॉल किया था, और वो नंबर कुछ ही दिनों पहले रजिस्टर हुआ था।
सच का पहला धागा
मोबाइल डेटा से पता चला कि “रोहित अग्रवाल” असली नाम नहीं था — यह एक नकली आईडी से लिया गया सिम था।
लेकिन लॉज के CCTV में जो फुटेज मिला, उसमें वो आदमी सिर्फ रात में आता और दिन में कहीं ग़ायब हो जाता था।
अभिषेक ने फोटो को नेहा के सोशल मीडिया प्रोफाइल से मैच किया। नेहा की कुछ पोस्ट में एक नाम बार-बार दिखा — “आर्यन मेहरा” — जो कमेंट्स में अक्सर लिखता था — “तू भाग नहीं सकती…”
(भाग 2 में — आर्यन की तलाश, पुराने केसों से कनेक्शन, और एक चौंकाने वाला मोड़ जहां सच सामने आने लगता है…)
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