ज़ीरो से शिखर तक: आरव की संघर्ष और सफलता की प्रेरक कहानी

ज़ीरो से शिखर तक: आरव की संघर्ष और सफलता की प्रेरक कहानी
एक छोटे शहर का सपना
“ज़िंदगी में अगर आसान रास्ता चाहिए, तो भीड़ के साथ चलो…
लेकिन अगर मंज़िल ऊँची चाहिए, तो अकेले चलने की हिम्मत रखो।”
साल 2006 का अप्रैल महीना था। बिहार के दरभंगा ज़िले का एक छोटा सा कस्बा – बिरौल।
सड़कें टूटी हुई, बिजली हर दूसरे दिन गायब, और लोगों की बातें वही पुरानी – “सरकारी नौकरी कर लो, ज़िंदगी बन जाएगी।”
इसी कस्बे में रहता था आरव मिश्रा, 18 साल का, दुबली-पतली काया, आँखों में तेज़, लेकिन चेहरे पर हमेशा एक दबा हुआ डर – कहीं उसके सपने वक्त से पहले मर न जाएं।
आरव के पिता, महेन्द्र मिश्रा, एक सरकारी स्कूल में गणित के टीचर थे।
पढ़ाई में सख़्त, लेकिन दिल से नरम। माँ, सरिता मिश्रा, गृहिणी थीं – दिन भर घर के काम और बच्चों के लिए जीना।
आरव की एक छोटी बहन थी – रश्मि, जो उस समय 9वीं कक्षा में थी और अपने भाई को हीरो मानती थी।
आरव को बचपन से ही किताबों में नहीं, बल्कि मशीनों और बिज़नेस में दिलचस्पी थी।
पढ़ाई में ठीक-ठाक था, लेकिन जब भी गाँव में कोई मेला लगता, तो वह अपनी जेब खर्च से कोई छोटा-मोटा सामान खरीद कर बेचने की कोशिश करता – मुनाफ़ा हो या घाटा, उसे फर्क नहीं पड़ता था।
कॉलेज का पहला कदम
आरव का सपना था कि वह पटना जाकर पढ़ाई करे और वहाँ से कोई बड़ा काम शुरू करे।
12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास करने के बाद, उसे पटना यूनिवर्सिटी में B.Com में एडमिशन मिल गया।
ये उसके लिए “ज़ीरो से शिखर तक” की असली शुरुआत थी, हालांकि उस समय उसे खुद भी अंदाज़ा नहीं था।
कॉलेज का पहला दिन…
सुबह-सुबह बस स्टैंड पर भीड़ लगी थी।
आरव ने अपनी पुरानी, लेकिन चमकाई हुई साइकिल वहीं खड़ी की और बस में चढ़ गया।
पटना की सड़कें, हॉर्न की आवाज़ें, और हर जगह दौड़ते-भागते लोग – ये सब उसके गाँव से बिलकुल अलग था।
क्लास में कदम रखते ही उसकी मुलाक़ात हुई समीर और आदित्य से।
दोनों पटना के ही रहने वाले, फैशनेबल कपड़े पहने, हाथ में स्मार्टफोन (जो उस समय गाँव में किसी-किसी के पास होता था)।
शुरुआत में आरव थोड़ा संकोच में रहा, लेकिन धीरे-धीरे बातें होने लगीं।
समीर पढ़ाई से ज़्यादा इवेंट्स में दिलचस्पी रखता था, जबकि आदित्य का सपना था कि वह MBA करे और किसी बड़ी कंपनी में जॉब पाए।
हॉस्टल की ज़िंदगी
पटना में हॉस्टल की ज़िंदगी आसान नहीं थी।
एक छोटे कमरे में तीन लोग – एक पंखा जो आधा दिन चलता, एक टेबल-चेयर, और एक पुराना अलमारी।
हॉस्टल की कैंटीन में खाना ऐसा कि पहले दिन ही आरव को लगा – अगर ये रोज़ खाना पड़ा, तो 6 महीने में बीमार पड़ जाएगा।
लेकिन सपनों के पीछे भागने वालों के पास शिकायत का समय नहीं होता।
रात को लाइट बंद होने के बाद भी आरव मोबाइल की हल्की रोशनी में किताबें पढ़ता और नोट्स बनाता।
लेकिन ये नोट्स सिर्फ कॉलेज के लिए नहीं थे – उसमें बिज़नेस आइडिया, मार्केटिंग के टिप्स, और कुछ नए कॉन्सेप्ट लिखे होते।
वह अक्सर खुद से कहता – “मुझे ज़ीरो से शिखर तक पहुँचना है, और इसके लिए हर दिन कुछ सीखना पड़ेगा।”
पहला आइडिया
पहला साल खत्म होते-होते, आरव ने देखा कि कॉलेज में बहुत सारे स्टूडेंट्स को प्रिंटआउट, नोट्स, और स्टेशनरी की ज़रूरत होती है, लेकिन उन्हें महंगे दाम पर बाहर से खरीदना पड़ता है।
उसने सोचा – क्यों न मैं ही ये सर्विस सस्ती दर पर दूँ?
वह अपने गाँव से 5,000 रुपये लेकर आया, एक सेकंड हैंड प्रिंटर खरीदा, और हॉस्टल के कमरे में ही एक छोटा सा “प्रिंट एंड स्टेशनरी” सेटअप बना दिया।
शुरुआत में कुछ लोग मज़ाक उड़ाते – “ये पढ़ाई छोड़कर ज़ीरो से शिखर तक पहुँचने का नया तरीका है क्या?”
लेकिन धीरे-धीरे, उसके पास रोज़ 10–15 ऑर्डर आने लगे।
पहली बार, उसने एक महीने में 2,000 रुपये बचाए – ये छोटी रकम थी, लेकिन उसके लिए ये पहली जीत थी।
पहली नाकामी
दूसरे सेमेस्टर के बीच में, प्रिंटर अचानक खराब हो गया।
मरम्मत के लिए 3,000 रुपये लगते, और उसके पास सिर्फ़ 1,500 रुपये थे।
कस्टमर एक-एक कर के चले गए, और 2 हफ्तों में उसका छोटा बिज़नेस बंद हो गया।
उस दिन वह देर रात तक हॉस्टल की छत पर बैठा रहा।
पटना की हवा में ठंड थी, लेकिन उसके सीने में जलन – “शायद मैं बिज़नेस के लिए बना ही नहीं हूँ…”.
लेकिन फिर उसे अपने पिता की बात याद आई – “सपना देखो तो अधूरा छोड़ने का हक़ मत देना किसी को, ख़ुद को भी नहीं।”
अगला कदम – सीखना, सिर्फ़ कमाना नहीं
आरव ने तय किया कि इस बार बिना सीखे कुछ शुरू नहीं करेगा।
वह कॉलेज के साथ-साथ शाम को डिजिटल मार्केटिंग का कोर्स करने लगा।
उसने छोटे-छोटे प्रोजेक्ट फ्री में लिए, ताकि स्किल बन सके।
धीरे-धीरे, उसे समझ आने लगा कि असली “ज़ीरो से शिखर तक” का सफ़र सिर्फ़ पैसों से नहीं, बल्कि ज्ञान और अनुभव से बनता है।
नई दिशा की तलाश
डिजिटल मार्केटिंग कोर्स के तीसरे हफ्ते में ही आरव को समझ आने लगा था कि ये सिर्फ़ एक स्किल नहीं, बल्कि आने वाले वक्त का हथियार है।
क्लास में, ट्रेनर ने एक दिन कहा –
“आज की दुनिया में, प्रोडक्ट बनाने से ज़्यादा ज़रूरी है, उसे बेचने का तरीका आना।”
ये लाइन आरव के दिमाग में गूँजने लगी।
उसे लगा कि शायद यही वह रास्ता है, जो उसे ज़ीरो से शिखर तक ले जा सकता है।
उसने तय किया कि वह सिर्फ़ पढ़ाई या छोटे-मोटे काम पर नहीं रुकेगा।
अब उसे एक ऐसा काम करना है जो स्केलेबल हो, यानी जो सिर्फ़ पटना या हॉस्टल तक सीमित न रहे।
पहला बड़ा मौका
एक दिन, समीर अपने एक दोस्त की शादी के लिए फोटोशूट का काम ढूँढ रहा था।
वह बोला –
“भाई, कोई अच्छा-सा फोटोग्राफर चाहिए, लेकिन सस्ता मिले।”
आरव ने तुरंत कहा –
“क्यों न मैं देख लूँ? मैं कॉलेज के मीडिया क्लब से कुछ फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर जानता हूँ।”
आरव ने तीन स्टूडेंट फोटोग्राफर्स को मिलाकर 7,000 रुपये में डील पक्की कर दी, जिसमें से 2,000 रुपये उसने अपनी फीस के तौर पर रख लिए।
ये उसकी पहली ब्रोकरेज डील थी – जिसमें उसने खुद कैमरा नहीं पकड़ा, लेकिन नेटवर्किंग और मैनेजमेंट से पैसे कमाए।
यहीं से उसे समझ आया – “बिज़नेस सिर्फ़ बनाने का नहीं, जोड़ने का भी खेल है।”
संघर्ष का असली दौर
जैसे-जैसे कॉलेज का तीसरा सेमेस्टर करीब आया, पैसों की दिक्कत फिर से बढ़ गई।
पिता की सैलरी से सिर्फ़ हॉस्टल और फ़ीस का खर्च निकल पाता था।
अगर उसे कुछ नया शुरू करना था, तो खुद का फंड जुटाना ज़रूरी था।
इस बार उसने फैसला किया कि वह पार्ट-टाइम जॉब करेगा।
लेकिन पटना में स्टूडेंट्स के लिए अच्छे जॉब मिलना आसान नहीं था।
कभी उसे फ्लायर्स बाँटने का काम मिलता, कभी कॉल सेंटर में शाम की शिफ्ट।
कई बार उसे रात में 1 बजे तक हॉस्टल लौटना पड़ता, और सुबह 8 बजे क्लास में जाना पड़ता।
शारीरिक थकान के बावजूद, वह रोज़ अपनी डायरी में लिखता –
“ज़ीरो से शिखर तक – हर दिन एक ईंट रखनी है।”
स्टार्टअप की चिंगारी
डिजिटल मार्केटिंग के दौरान उसने सीखा था कि छोटे दुकानदार भी ऑनलाइन आना चाहते हैं, लेकिन उनके पास न समय है, न जानकारी।
उसने सोचा – क्यों न मैं लोकल बिज़नेस के लिए ऑनलाइन पेज और प्रोमोशन करूँ?
पहला टार्गेट था हॉस्टल के पास की एक मिठाई की दुकान – “गुप्ता स्वीट्स”।
वह मालिक के पास गया और बोला –
“मैं आपके लिए फेसबुक पेज बना दूँगा, आपके प्रोडक्ट की फ़ोटो खींचकर डालूँगा, और आपको ऑनलाइन ऑर्डर लाने में मदद करूँगा।”
मालिक ने हँसते हुए कहा –
“अरे बेटा, ये फेसबुक-टेसबुक से मिठाई बिकती है क्या?”
लेकिन जब आरव ने एक हफ्ते में ही उनके लिए 15 ऑर्डर दिला दिए, तो मालिक ने उसे 1,000 रुपये इनाम के तौर पर दे दिए और महीने का कॉन्ट्रैक्ट पक्का कर दिया।
पहली टीम
आरव ने अपने दो दोस्तों – आदित्य और हॉस्टल के जूनियर राहुल – को इस काम में शामिल कर लिया।
आदित्य क्लाइंट से मीटिंग करता, राहुल फ़ोटो और वीडियोग्राफी करता, और आरव स्ट्रैटेजी व सोशल मीडिया हैंडल करता।
धीरे-धीरे, उनके पास तीन और लोकल क्लाइंट आ गए – एक जूस शॉप, एक साइकल रिपेयर स्टोर, और एक बुक शॉप।
पहली बार, आरव को लगा कि ये सिर्फ़ पॉकेट मनी नहीं, बल्कि एक असली स्टार्टअप की शुरुआत है।
समाज का ताना
लेकिन गाँव से रिश्तेदारों की बातें अलग थीं –
“पढ़ाई छोड़कर फेसबुक पर टाइम बर्बाद कर रहा है…”
“ये सब टिकेगा नहीं, सरकारी नौकरी ही असली रास्ता है।”
आरव को ये बातें चुभतीं, लेकिन वह चुप रहता।
वह जानता था कि उसका सपना सिर्फ़ नौकरी करना नहीं है – वह खुद नौकरी देने वाला बनना चाहता है।
अचानक आया तूफ़ान
जब सब अच्छा चल रहा था, तभी दिसंबर की एक ठंडी शाम, हॉस्टल लौटते वक्त आरव का एक्सीडेंट हो गया।
एक बाइक ने उसे टक्कर मार दी, और उसके पैर में गहरी चोट आ गई।
डॉक्टर ने 2 महीने तक आराम करने की सलाह दी।
इसका मतलब था – न मीटिंग हो पाएगी, न शूट, न क्लाइंट मैनेजमेंट।
दो महीने में उसका आधा क्लाइंट लिस्ट छोड़ गया, और टीम बिखरने लगी।
रात को वह खिड़की से बाहर पटना की सड़कें देख रहा था और सोच रहा था –
“क्या मैं फिर से ज़ीरो पर आ गया हूँ?”
फिर से उठने का फ़ैसला
आरव ने तय किया कि अगर चल नहीं सकता, तो बैठकर काम करेगा।
उसने लैपटॉप पर बैठकर ऑनलाइन फ्रीलांसिंग शुरू की –
सोशल मीडिया पोस्ट डिज़ाइन, कंटेंट राइटिंग, और बेसिक वेबसाइट बनाना।
पहले महीने में ही उसे एक दिल्ली के क्लाइंट से 5,000 रुपये का प्रोजेक्ट मिला।
उसे लगा – “शायद यही असली रास्ता है – जो लोकेशन पर निर्भर न हो।”
पहला असली ब्रांड
ऑनलाइन फ्रीलांसिंग से थोड़ा पैसा आने लगा था, लेकिन आरव को लगा कि अगर उसे ज़ीरो से शिखर तक पहुँचना है, तो उसे सिर्फ़ दूसरों के लिए काम करने से आगे बढ़ना होगा।
एक रात, वह अपने लैपटॉप के सामने बैठा, हाथ में चाय का कप लिए सोच रहा था –
“क्यों न मैं एक ऐसा ब्रांड बनाऊँ, जो लोकल बिज़नेस को एक ही जगह से ऑनलाइन ले जाए?”
उसने एक नाम चुना – “लोकलविंग्स”।
मकसद साफ़ था – छोटे दुकानदारों और सर्विस प्रोवाइडर्स को सोशल मीडिया, ऑनलाइन ऑर्डर और बेसिक ब्रांडिंग दिलाना।
शुरुआती सेटअप
समस्या थी – पैसे की।
लोगो डिज़ाइन, वेबसाइट, मार्केटिंग – सबके लिए पैसा चाहिए था।
इस बार उसने ठान लिया कि वो किसी से उधार नहीं लेगा।
उसने अपने पुराने कैमरे को OLX पर बेच दिया, जिससे 5,500 रुपये मिले।
रात भर जागकर उसने खुद ही वेबसाइट डिज़ाइन की।
आदित्य ने मुफ्त में लोगो बनाया, और राहुल ने कुछ लोकल बिज़नेस के लिए डेमो शूट कर दिए।
दो हफ्तों में, लोकलविंग्स का इंस्टाग्राम पेज लॉन्च हो गया।
पहली पब्लिक रेस्पॉन्स
लॉन्च के पहले दिन, उसने 100 दुकानदारों को व्हाट्सऐप मैसेज भेजे –
“अब आपका बिज़नेस भी ऑनलाइन। लोकलविंग्स के साथ।”
10 दुकानदारों ने इंटरेस्ट दिखाया, और 3 ने एडवांस देकर साइन अप कर लिया।
ये छोटा-सा नंबर था, लेकिन आरव के लिए ये पहली जीत थी।
गाँव वापसी
नए साल पर, आरव अपने गाँव लौटा।
गाँव में उसकी कामयाबी को लेकर दो तरह की बातें थीं –
- समर्थन करने वाले –
“अरे, बेटा अपने दम पर पटना में कुछ कर रहा है, ये बड़ी बात है।” - ताने देने वाले –
“लड़का पढ़ाई छोड़कर मोबाइल में बिज़नेस करता है, ये काम नहीं चलेगा।”
आरव चुपचाप सुनता रहा।
लेकिन सबसे ज्यादा उसे तकलीफ़ हुई, जब उसके चाचा ने सीधे कहा –
“सरकारी नौकरी के बिना, तेरी कोई इज़्ज़त नहीं होगी।”
भावनात्मक मोमेंट
गाँव में उसकी दादी बीमार थीं।
रात को वह उनके पास बैठा, जब सब सो चुके थे।
दादी ने उसका हाथ पकड़कर कहा –
“बेटा, लोग क्या कह रहे हैं, इसकी चिंता मत कर। तू जो कर रहा है, अगर ईमानदारी से करेगा, तो एक दिन तुझे देखकर यही लोग गर्व करेंगे।”
ये बात आरव के दिल में उतर गई।
उसे लगा – “यही तो असली ताक़त है, जो मुझे हारने नहीं देगी।”
गाँव में पहला काम
गाँव में रहते-रहते उसे ख्याल आया – क्यों न यहाँ के छोटे-छोटे कामों को भी ऑनलाइन किया जाए?
उसने गाँव के दूध सप्लायर का छोटा-सा वीडियो बनाकर व्हाट्सऐप पर शेयर किया।
तीन दिनों में ही 20 नए कस्टमर उस सप्लायर से जुड़ गए।
जब गाँव के लोग ये देख रहे थे, तो उन्हें एहसास हुआ कि शायद आरव का “मोबाइल वाला काम” बेकार नहीं है।
नई ऊर्जा के साथ वापसी
पटना लौटते वक्त आरव ने तय कर लिया –
“अब मैं सिर्फ़ क्लाइंट के लिए काम नहीं करूँगा, बल्कि लोकलविंग्स को एक असली कंपनी बनाऊँगा।”
उसने एक नोटबुक में प्लान लिखा –
- हर महीने 5 नए क्लाइंट
- इंस्टाग्राम और फेसबुक पर हर दिन पोस्ट
- एक साल में कम से कम 50,000 रुपये का मुनाफ़ा
पहला कॉर्पोरेट क्लाइंट
पटना लौटने के दो हफ़्ते बाद, आरव को एक बड़ा मौका मिला।
एक जानी-मानी फर्नीचर कंपनी के मार्केटिंग हेड ने इंस्टाग्राम पर उसका काम देखा और मीटिंग के लिए बुलाया।
ऑफिस में घुसते वक्त आरव के हाथ ठंडे पड़ गए थे।
अब तक उसने सिर्फ़ लोकल दुकानदारों से डील की थी, लेकिन ये पहला कॉर्पोरेट लेवल क्लाइंट था।
मीटिंग के दौरान, उसने अपनी प्रेज़ेंटेशन में लोकलविंग्स के पुराने काम, रील्स के एंगेजमेंट ग्राफ, और ग्राहकों की बढ़ी हुई सेल्स के आंकड़े दिखाए।
मार्केटिंग हेड ने सिर्फ़ एक बात कही –
“अगर तुम एक महीने में हमारे ऑनलाइन सेल्स में 20% ग्रोथ ला सकते हो, तो हम सालभर का कॉन्ट्रैक्ट देंगे।”
आरव ने बिना झिझके हाँ कर दी।
तैयारी की दौड़
ये आरव के करियर का सबसे बड़ा टेस्ट था।
उसने आदित्य और राहुल के साथ बैठकर पूरा मार्केटिंग कैलेंडर बनाया।
हर दिन दो पोस्ट, हफ़्ते में तीन रील्स, और हर प्रोडक्ट का प्रोफेशनल फोटोशूट।
एक महीने में नतीजे चौंकाने वाले थे –
कंपनी की ऑनलाइन सेल्स 32% बढ़ गई।
और फिर, आरव को 12 महीने का कॉन्ट्रैक्ट मिल गया।
ये डील उसके लिए मील का पत्थर थी।
पहली बार उसने अपने बैंक अकाउंट में एक साथ 80,000 रुपये देखे।
पहला धोखा
लेकिन सफलता की इस चमक के पीछे, एक अंधेरा भी छिपा था।
लोकलविंग्स के लिए काम करने वाला एक फ्रीलांसर, जिसे आरव ने ट्रेन किया था, चुपके से उसी फर्नीचर कंपनी के मार्केटिंग हेड से मिलकर, उन्हें कम पैसों में वही सर्विस देने का ऑफर दे बैठा।
आरव को पता चला, जब कंपनी ने अचानक अगले महीने का पेमेंट रोक दिया।
फोन पर मार्केटिंग हेड ने बस इतना कहा –
“हमने अब इन-हाउस टीम बना ली है, इसलिए आपकी सर्विस की जरूरत नहीं।”
उस पल आरव को लगा जैसे उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई हो।
इतनी मेहनत, इतना टाइम… और सब कुछ एक पल में खत्म।
आर्थिक मार
कंपनी के कॉन्ट्रैक्ट पर उसका पूरा बजट टिका था।
पेमेंट रुकते ही, ऑफिस का किराया, इंटरनेट बिल, और टीम की सैलरी देने में दिक्कत आने लगी।
तीन महीने बाद, उसकी बचत खत्म हो चुकी थी।
आरव ने ऑफिस छोड़कर एक छोटे से कमरे में शिफ्ट कर लिया, जहां सिर्फ़ एक टेबल, एक कुर्सी और पुराना लैपटॉप था।
सबक
उसने उस रात खुद से वादा किया –
“अब मैं किसी एक क्लाइंट पर निर्भर नहीं रहूँगा।”
उसने लोकलविंग्स को विभिन्न सर्विस पैकेज में बांटा –
- छोटे दुकानदारों के लिए बेसिक पैकेज
- मिड-लेवल बिज़नेस के लिए प्रीमियम पैकेज
- और स्टार्टअप्स के लिए डिजिटल लॉन्च पैकेज
नई शुरुआत की योजना
आदित्य और राहुल ने भी उसका साथ नहीं छोड़ा।
तीनों ने मिलकर तय किया कि इस बार वे सिर्फ़ पटना ही नहीं, आसपास के शहरों में भी मार्केटिंग करेंगे।
आरव ने अपनी नोटबुक में लिखा –
“ज़ीरो से शिखर तक की असली यात्रा अब शुरू होगी।”
इस हिस्से के अंत में, आरव एक बार फिर ज़मीन पर गिर चुका है, लेकिन उसके अंदर का जज़्बा और सीख पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है।
हिस्सा 5 में –
- एक रहस्यमयी इन्वेस्टर की एंट्री
- एक बड़ा लेकिन रिस्की प्रोजेक्ट
- और आरव के जीवन का पहला मीडिया इंटरव्यू
रहस्यमयी इन्वेस्टर की एंट्री
पटना के एक बिज़नेस नेटवर्किंग इवेंट में, आरव की नज़र एक व्यक्ति पर पड़ी।
लगभग 40-45 साल का, सफ़ेद शर्ट, नीली जींस, और गले में काला स्कार्फ –
लोग उसे घेरकर बातें कर रहे थे।
आदित्य ने कान में फुसफुसाया –
“ये विक्रम अरोड़ा है… पटना का सबसे बड़ा एंजल इन्वेस्टर।”
आरव को लगा, बस यही मौका है।
वो सीधे विक्रम के पास गया और अपना परिचय दिया।
विक्रम ने ध्यान से सुना, लेकिन सिर्फ़ एक लाइन कही –
“तुम्हारे अंदर फायर है, लेकिन तुम्हारा बिज़नेस मॉडल अधूरा है। कल सुबह 10 बजे मेरे ऑफिस आओ, बात करेंगे।”
ऑफिस मीटिंग
अगले दिन, आरव समय से पहले पहुँच गया।
विक्रम का ऑफिस किसी मिनी कॉर्पोरेट जैसा था – कांच की दीवारें, बड़े-बड़े पोस्टर, और हर जगह बिज़नेस अवॉर्ड्स।
विक्रम ने कहा –
“देखो, लोकलविंग्स अच्छा है, लेकिन तुम्हें स्केल करना होगा। अगर तुम सिर्फ़ पटना में रहोगे, तो पाँच साल बाद भी यही कर रहे होगे।”
उसने ऑफर दिया –
- ₹5 लाख का निवेश
- कंपनी में 25% इक्विटी
आरव ने सोचा – पैसे से वो अपनी टीम, मार्केटिंग और टेक इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत कर सकता है।
थोड़ी सोच-विचार के बाद, उसने हाँ कर दी।
रिस्की प्रोजेक्ट – गांव से ग्लोबल तक
इन्वेस्टमेंट के बाद, विक्रम ने एक आइडिया दिया –
“क्यों न हम बिहार के छोटे-छोटे गांवों के आर्ट और हैंडीक्राफ्ट को ऑनलाइन बेचें?
ये आइडिया नया था, लेकिन रिस्की भी।
गांवों में प्रोडक्ट क्वालिटी, टाइमली डिलीवरी, और डिजिटल पेमेंट जैसी समस्याएँ थीं।
आरव ने चुनौती स्वीकार की।
वो टीम के साथ गांव-गांव घूमकर आर्टिसन्स से मिला, उन्हें डिजिटल ट्रेनिंग दी, और लोकलविंग्स पर उनका प्रोडक्ट लिस्ट किया।
पहला महीना मुश्किल भरा था –
- ऑर्डर लेट पहुँचना
- कुछ प्रोडक्ट्स डैमेज होना
- और कई ग्राहक रिटर्न मांगना
लेकिन धीरे-धीरे, सिस्टम सेट हो गया।
तीन महीने में, 500+ प्रोडक्ट्स बिक चुके थे।
पहला मीडिया इंटरव्यू
लोकलविंग्स की इस पहल की चर्चा मीडिया तक पहुँची।
एक बड़े डिजिटल न्यूज़ पोर्टल ने आरव को इंटरव्यू के लिए बुलाया।
कैमरे के सामने बैठते समय उसके हाथ कांप रहे थे।
लेकिन जैसे ही इंटरव्यू शुरू हुआ, उसने अपने सफर की कहानी –
“ज़ीरो से शिखर तक” – खुलकर सुनाई।
उसने बताया कैसे उसने चाय की दुकान से शुरू किया, पहला कॉर्पोरेट क्लाइंट पाया, धोखा खाया, और फिर गांव के कारीगरों को ऑनलाइन लाया।
इंटरव्यू वायरल हो गया।
अगले ही हफ़्ते, लोकलविंग्स को 200 से ज्यादा नए रजिस्ट्रेशन मिले।
नया विश्वास, नई उड़ान
आरव को एहसास हुआ कि अब वो सिर्फ़ एक डिजिटल मार्केटर नहीं, बल्कि एक कम्युनिटी बिल्डर बन चुका है।
विक्रम ने भी कहा –
“अब तुम्हारा ब्रांड सिर्फ़ बिज़नेस नहीं, एक मिशन है।”
इस हिस्से के अंत में, आरव की पहचान पटना से बाहर निकल चुकी है और अब वो अगले बड़े कदम के लिए तैयार है।
हिस्सा 6 में –
- दिल्ली और मुंबई की एंट्री
- पहली बार बड़े कॉम्पिटिशन का सामना
- और एक पर्सनल झटका जो उसकी जिंदगी बदल देगा
दिल्ली की दहलीज़
मीडिया में इंटरव्यू वायरल होने के बाद, आरव को दिल्ली के एक ई-कॉमर्स कॉन्फ्रेंस में स्पीकर के तौर पर बुलाया गया।
ये उसका पहला मौका था बड़े मंच पर अपनी कहानी सुनाने का।
दिल्ली पहुँचते ही, उसने देखा – यहां की बिज़नेस एनर्जी बिल्कुल अलग है।
लोग तेज़, प्रोफेशनल, और बेहद कॉम्पिटिटिव थे।
कॉन्फ्रेंस में उसके बगल में बैठा था राहुल सिंह, जो “मेट्रोमार्केट” नाम का ई-कॉमर्स स्टार्टअप चला रहा था।
राहुल ने मुस्कुराते हुए कहा –
“अच्छा है जो तुमने गांव के प्रोडक्ट ऑनलाइन लाए… लेकिन मार्केट में बहुत भूखे शेर हैं, संभलकर रहना।”
आरव को पहली बार एहसास हुआ कि ये सफर आसान नहीं होने वाला।
मुंबई में पहला बड़ा मीटिंग
दिल्ली से वापस लौटते ही, विक्रम ने मुंबई में एक इन्वेस्टर मीट अरेंज किया।
ये मीटिंग हाई-प्रोफाइल थी –
- बड़े वेंचर कैपिटल फर्म्स
- रिटेल चेन के हेड्स
- और टेक कंपनियों के फाउंडर्स
आरव ने लोकलविंग्स का प्रेजेंटेशन दिया, लेकिन सवाल बहुत टफ थे –
“तुम्हारा लॉजिस्टिक्स कैसे स्केल करेगा?”
“गांव के प्रोडक्ट की क्वालिटी कंट्रोल कैसे होगी?”
“अगर अमेज़न या फ्लिपकार्ट ये आइडिया कॉपी कर लें तो?”
उस दिन उसे लगा कि उसने बहुत तैयारी की थी, लेकिन अभी भी कॉम्पिटिशन का असली लेवल नहीं समझा था।
पहला बड़ा कॉम्पिटिशन – मेट्रोमार्केट vs लोकलविंग्स
कुछ ही हफ़्तों में, राहुल सिंह का “मेट्रोमार्केट” भी गांव के आर्टिसन्स को टारगेट करने लगा।
लेकिन फर्क ये था कि उनके पास भारी फंडिंग, बड़ा टीम, और पहले से सेट लॉजिस्टिक्स नेटवर्क था।
मार्केट में प्राइस वॉर शुरू हो गया –
- मेट्रोमार्केट 10% डिस्काउंट देता
- आरव भी उसी रेट पर सेल करता, जिससे मुनाफा लगभग खत्म हो जाता
विक्रम ने कहा –
“कॉम्पिटिशन से डरना नहीं, लेकिन अपनी स्ट्रेंथ पहचानो। तुम्हारे पास पर्सनल कनेक्शन है, उनके पास नहीं।”
आरव ने गांव के आर्टिसन्स को स्टोरीटेलिंग के ज़रिए प्रमोट करना शुरू किया –
प्रत्येक प्रोडक्ट के साथ आर्टिसन की फोटो, उसकी कहानी, और गांव का नाम आता।
ये स्ट्रेटजी हिट हो गई, और ग्राहक सिर्फ़ प्रोडक्ट नहीं, बल्कि कहानी खरीदने लगे।
पर्सनल झटका
जब बिज़नेस थोड़ा स्टेबल हुआ, उसी समय आरव को एक कॉल आया –
“पापा को हार्ट अटैक आया है, जल्दी गांव आओ!”
आरव सब कुछ छोड़कर गांव पहुँचा।
पिता अस्पताल में भर्ती थे, हालत नाजुक थी।
पिता ने कमजोर आवाज़ में कहा –
“बेटा, मैंने तुझे कभी रोकने की कोशिश नहीं की… लेकिन याद रखना, पैसा ज़रूरी है, पर परिवार सबसे ज़रूरी है।”
ये शब्द आरव के दिल में गहराई तक उतर गए।
कुछ दिनों बाद, पिता की तबियत सुधर गई, लेकिन आरव समझ चुका था कि सफर कितना भी बड़ा हो,
जड़ों से जुड़े रहना ज़रूरी है।
नया मिशन
दिल्ली और मुंबई के अनुभवों ने आरव को सिखाया –
- मार्केट में सिर्फ़ आइडिया नहीं, स्ट्रेटजी जीतती है
- कॉम्पिटिशन हर जगह है, लेकिन यूनिक वैल्यू बनाना ज़रूरी है
- और ज़िंदगी में सफलता के साथ संतुलन भी होना चाहिए
अब उसने फैसला लिया कि लोकलविंग्स को सिर्फ़ एक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म नहीं,
बल्कि एक ग्रामीण विकास आंदोलन बनाया जाएगा।
पहला बड़ा ब्रांड कोलैबोरेशन
दिल्ली और मुंबई के मार्केट टेस्ट के बाद, लोकलविंग्स की पहचान धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी।
इसी दौरान, एक दिन विक्रम के ऑफिस में आरव का फोन बजा –
“Hello, मैं रिया मल्होत्रा बोल रही हूँ, इंडिग्लोबल हैंडीक्राफ्ट्स की ब्रांड मैनेजर। हमने आपका इंटरव्यू देखा और हमें लगता है कि हम मिलकर काम कर सकते हैं।”
रिया ने बताया कि उनका ब्रांड विदेशों में भारतीय हैंडीक्राफ्ट्स बेचता है, लेकिन अभी तक गांव के कारीगरों तक डायरेक्ट कनेक्शन नहीं बना पाया है।
अगर लोकलविंग्स उनके साथ पार्टनर करे, तो हजारों प्रोडक्ट्स ग्लोबल मार्केट में पहुँच सकते हैं।
मीटिंग मुंबई में तय हुई।
रिया ने आरव को प्रोफेशनल तरीके से प्रपोजल दिखाया –
- लोकलविंग्स प्रोडक्ट सप्लाई करेगा
- इंडिग्लोबल ग्लोबल डिस्ट्रीब्यूशन संभालेगा
- मुनाफे का 40% लोकलविंग्स को मिलेगा
आरव के लिए ये डील एक सपना थी, लेकिन उसने तुरंत हाँ नहीं की।
विक्रम से सलाह ली –
“आरव, ये मौका है, लेकिन ध्यान रखना कि ब्रांड की पहचान तुम्हारे हाथ से न निकल जाए। कॉन्ट्रैक्ट पढ़कर ही साइन करना।”
आखिरकार, कुछ शर्तें बदलवाकर डील फाइनल हुई।
गांव के कारीगरों के चेहरे पर नई उम्मीद चमक उठी –
अब उनका काम पेरिस, न्यूयॉर्क और टोक्यो तक जाएगा।
ग्लोबल मार्केट में पहला ऑर्डर
पहला इंटरनेशनल ऑर्डर अमेरिका से आया – 1,200 हाथ से बने पीतल के दीये।
गांव में जैसे त्योहार सा माहौल था।
कारीगरों ने दिन-रात मेहनत की, लेकिन क्वालिटी को लेकर आरव बेहद सख्त था।
शिपमेंट भेजते वक्त उसने हर पैकेज पर कारीगर का नाम और गांव का छोटा सा मैसेज लिखवाया।
जब ये प्रोडक्ट अमेरिका पहुँचे, वहां के ग्राहकों ने सोशल मीडिया पर फोटो शेयर किए –
“Made with love from an Indian village”
ये पोस्ट वायरल हो गईं, और लोकलविंग्स का इंटरनेशनल पेज अचानक हज़ारों फॉलोअर्स से भर गया।
शहर की चमक और गांव की सच्चाई
इंटरनेशनल डील के साथ ही आरव को बड़े-बड़े बिज़नेस इवेंट्स में बुलाया जाने लगा।
वो शहरों की चमक-दमक देख रहा था – पांच सितारा होटल, कैमरे, मीडिया इंटरव्यू…
लेकिन हर बार लौटकर गांव आता तो मिट्टी की खुशबू उसे जकड़ लेती।
पिता की तबियत अभी भी नाज़ुक थी, और मां चाहती थी कि बेटा ज्यादा समय घर पर बिताए।
आरव दो दुनियाओं के बीच फँस गया था –
एक ओर ग्लोबल सपने, दूसरी ओर पारिवारिक जिम्मेदारियां।
पहला बड़ा झटका – धोखा
इसी दौरान, इंडिग्लोबल ने दूसरा ऑर्डर दिया – लेकिन इस बार पैमेंट के पहले एडवांस में देरी हो रही थी।
रिया बार-बार कहती –
“थोड़ा टाइम दो, पेमेंट क्लियर हो जाएगा।”
पर कुछ हफ्तों बाद खबर आई कि इंडिग्लोबल की फाइनेंशियल हालत खराब है और उन्होंने कई सप्लायर्स के पेमेंट रोक दिए हैं।
आरव के पास गांव के कारीगरों को देने के लिए पैसे नहीं थे।
लोगों ने सवाल करना शुरू कर दिया –
“तुमने हमें बड़े सपने दिखाए थे, अब हमारा पैसा अटका दिया।”
ये आरव के लिए सबसे बड़ा पर्सनल और प्रोफेशनल झटका था।
उसे समझ आ गया कि बड़े मौके के साथ बड़ा रिस्क भी आता है।
खुद का रास्ता
हार मानने के बजाय, आरव ने फैसला किया – अब वो किसी एक ब्रांड पर डिपेंड नहीं करेगा।
उसने अपना खुद का इंटरनेशनल ई-कॉमर्स पोर्टल शुरू करने का प्लान बनाया।
विक्रम ने कहा –
“शानदार सोच है, लेकिन इसके लिए टेक, लॉजिस्टिक्स और मार्केटिंग – सब कुछ खुद बनाना पड़ेगा। ये आसान नहीं होगा।”
आरव मुस्कुराया –
“मुश्किल रास्ते ही तो शिखर तक ले जाते हैं।”
तूफ़ान से टकराने का समय
आरव का स्टार्टअप अब उस मोड़ पर पहुँच चुका था, जहाँ छोटे-छोटे ऑर्डर से आगे बढ़कर बड़े कॉन्ट्रैक्ट्स आने लगे थे। हर दिन कॉलेज के बाद, वह और उसकी टीम देर रात तक काम करते। उसकी माँ अकसर कहती,
“बेटा, इतनी रात तक मत जग, सेहत बिगड़ जाएगी।”
लेकिन आरव के कानों में बस एक ही आवाज़ गूंजती—“ज़ीरो से शिखर तक”। यह वाक्य उसका मंत्र बन चुका था।
पहला बड़ा कॉन्ट्रैक्ट
एक दिन, दिल्ली की एक नामी रिटेल चेन ने आरव की कंपनी से 50 लाख रुपये का ऑर्डर दिया। यह उसके लिए सपना सच होने जैसा था।
टीम में उत्साह का माहौल था। ऋषभ ने कहा,
“भाई, ये ऑर्डर सही से डिलीवर हो गया तो हम मार्केट में छा जाएंगे!”
आरव ने कंधे पर हाथ रखकर कहा,
“हम सिर्फ़ छाएँगे नहीं, हम तूफ़ान बनेंगे।”
समस्या की शुरुआत
लेकिन सपनों की उड़ान के साथ-साथ चुनौतियाँ भी आने लगीं। कॉन्ट्रैक्ट में तय था कि 30 दिनों के भीतर ऑर्डर डिलीवर करना होगा।
पहले हफ्ते में ही सप्लायर ने कच्चा माल भेजने में देरी कर दी। दूसरा हफ्ता आया, तो मशीन में खराबी आ गई। तीसरे हफ्ते तक टीम दबाव में आ गई थी।
आरव ने दिन-रात मेहनत की, मशीन खुद रिपेयर करवाई, लेकिन समय कम था।
डेडलाइन मिस होना
डिलीवरी की तारीख आई और टीम सिर्फ़ 70% काम ही पूरा कर पाई।
कंपनी ने कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर दिया और 10 लाख रुपये पेनल्टी लगा दी।
वो शाम आरव की जिंदगी का सबसे भारी दिन था।
ऑफिस खाली हो चुका था, सिर्फ़ वह और ऋषभ बैठे थे। आरव ने धीरे से कहा,
“शायद मैं इस काम के लिए बना ही नहीं हूँ।”
ऋषभ ने उसकी ओर देखा और कहा,
“अरे पागल, याद कर, हम क्यों शुरू हुए थे—ज़ीरो से शिखर तक, है ना? हार मानना तो हमारी डिक्शनरी में ही नहीं।”
घाव गहरा था
लेकिन सच यह था कि पेनल्टी भरने के बाद बैंक अकाउंट लगभग खाली हो चुका था।
टीम के कुछ लोग नौकरी छोड़ गए। सोशल मीडिया पर कुछ लोग मज़ाक बनाने लगे—
“ये वही लड़का है जिसने कहा था तूफ़ान लाऊँगा, और अब खुद डूब रहा है।”
आरव ने पहली बार महसूस किया कि दुनिया सिर्फ़ सफलता की पूजा करती है, असफलता को कोई गले नहीं लगाता।
माँ का सहारा
उस रात माँ ने उसके कमरे में आकर बस एक बात कही,
“बेटा, जब पौधा टूटता है, तो किसान उसे फेंकता नहीं… सहारा देता है, ताकि वो फिर से सीधा खड़ा हो सके।”
ये शब्द आरव के दिल में तीर की तरह लगे, लेकिन इस बार यह तीर चोट नहीं, बल्कि हिम्मत दे गया।
राख से उठने की जिद
पेनल्टी भरने और टीम टूटने के बाद, आरव के ऑफिस में अजीब-सी ख़ामोशी छा गई थी। वह हर दिन खाली कुर्सियों को देखता और सोचता—“क्या मैं सच में खत्म हो गया?”
लेकिन रात के सन्नाटे में उसे माँ की बातें याद आईं—“पौधा टूटे तो सहारा दो।”
उसी रात उसने डायरी खोली और सबसे ऊपर लिखा—
“मैं फिर उठूँगा – ज़ीरो से शिखर तक”
नई योजना की शुरुआत
आरव ने समझ लिया था कि बड़ी मछली पकड़ने से पहले छोटे-छोटे तालाबों में तैरना ज़रूरी है।
उसने दो बड़े बदलाव किए:
- बड़े कॉन्ट्रैक्ट्स की जगह छोटे और जल्दी डिलीवर होने वाले ऑर्डर्स लेना।
- टीम में सिर्फ़ उन लोगों को रखना, जो मुश्किल वक्त में साथ खड़े हों।
ऋषभ और दो पुराने मेंबर्स ने उसका साथ दिया। तीन लोगों की यह छोटी-सी टीम फिर से काम पर जुट गई।
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पहली जीत की वापसी
एक महीने में, उन्होंने 12 छोटे ऑर्डर्स पूरे किए। मुनाफ़ा भले कम था, लेकिन मार्केट में धीरे-धीरे उनका भरोसा लौटने लगा।
लोग फिर से कहने लगे—“ये वही लड़का है, जो असफल होने के बाद भी नहीं रुका।”
अंतरराष्ट्रीय ईमेल
एक दिन, आरव के मेलबॉक्स में एक अनजान ईमेल आया।
भेजने वाला था—“Global Trends Inc., Singapore”।
ईमेल में लिखा था:
“हमने आपके काम के बारे में सोशल मीडिया पर पढ़ा है। हमें एक प्रोटोटाइप चाहिए, जो 15 दिनों में तैयार हो सके।”
यह उसके लिए सुनहरा मौका था।
लेकिन साथ ही डर भी था—“कहीं फिर से डेडलाइन मिस न हो जाए।”
पागलों जैसी मेहनत
अगले 15 दिनों तक, आरव और टीम ने दिन-रात काम किया। इस बार कोई गलती की गुंजाइश नहीं थी।
अंतिम दिन, डिलीवरी से पहले प्रोडक्ट को पैक करते समय ऋषभ ने कहा—
“भाई, इस बार अगर डिलीवर हो गया, तो ये सिर्फ़ ऑर्डर नहीं, हमारी इज्ज़त की वापसी होगी।”
आरव ने मुस्कुराकर जवाब दिया—
“ये वापसी नहीं, ये हमारा पहला असली कदम है—ज़ीरो से शिखर तक का।”
सिंगापुर से कॉल
डिलीवरी के चार दिन बाद, एक इंटरनेशनल कॉल आई। दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई—
“Mr. Arav, your work is impressive. We want to sign a one-year deal with you.”
आरव की आंखों में नमी थी। उसने फ़ोन रखा, माँ को गले लगाया और कहा—
“माँ, आज मैं साबित कर दिया कि गिरने के बाद उठना ही असली जीत है।”
तेज़ी से उड़ान
सिंगापुर की डील साइन होने के बाद, आरव की छोटी सी कंपनी जैसे पंख लगाकर उड़ने लगी।
ऑफिस में अब हर दिन नई मीटिंग, नए क्लाइंट और नए प्रोजेक्ट्स आने लगे।
ऋषभ हँसते हुए कहता—
“भाई, लगता है अब तो हमें भी सूट-बूट में बैठकर काम करना पड़ेगा।”
आरव भी मुस्कुरा देता, लेकिन अंदर से जानता था—
“ये वक्त जितना मीठा है, उतना ही खतरनाक भी।”
टीम का विस्तार
छह महीने में टीम 3 से बढ़कर 20 लोगों की हो गई।
नए चेहरों में से एक था कुणाल—एक स्मार्ट, तेज़-तर्रार लड़का, जिसे आरव ने फ़ाइनेंस का हेड बनाया था।
कुणाल मीटिंग्स में हमेशा शानदार आइडियाज़ देता, जिससे कंपनी का मुनाफ़ा और बढ़ने लगा।
अंदरूनी हलचल
लेकिन कुछ अजीब बातें भी होने लगीं।
- प्रोजेक्ट डेडलाइन से पहले ही क्लाइंट्स को डेमो भेज दिया जाता।
- अकाउंट्स में छोटे-छोटे मिसमैच दिखने लगे।
- कुछ पुराने क्लाइंट्स बिना वजह कॉन्ट्रैक्ट कैंसिल कर रहे थे।
आरव ने एक दिन ऋषभ से कहा—
“मुझे लगता है, कंपनी के अंदर से कोई हमें नुक़सान पहुँचा रहा है।”
ऋषभ ने धीमी आवाज़ में जवाब दिया—
“भाई, शक तो मुझे भी है… और मेरा शक सीधे कुणाल पर है।”
पहला सबूत
एक रात, जब सब ऑफिस से जा चुके थे, आरव अपने लैपटॉप पर रिपोर्ट चेक कर रहा था।
तभी उसने नोटिस किया कि एक गुप्त फ़ाइल किसी यूएस-आधारित IP से एक्सेस हुई है।
फ़ाइल में कंपनी के सभी प्रोजेक्ट ब्लूप्रिंट्स थे।
वह फाइल एक्सेस लॉग में जो नाम आया, वह था—Kunal_Official।
आरव के हाथ ठंडे हो गए।
“यानी ये लड़का शुरू से ही…”
तूफ़ान से पहले की खामोशी
अगले दिन कुणाल ऐसे ही हँसते हुए ऑफिस आया, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
लेकिन आरव के मन में एक तूफ़ान चल रहा था।
उसने तय कर लिया—
“अब इसे रंगे हाथ पकड़ना ही होगा, वरना ज़ीरो से शिखर तक का ये सफ़र फिर ज़ीरो पर आ जाएगा।”
जाल बिछाने की तैयारी
आरव ने समझ लिया था कि अगर उसने जल्द कार्रवाई नहीं की, तो “ज़ीरो से शिखर तक” का उसका सफर अचानक खत्म हो सकता है।
उसने तय किया कि सबूत इकट्ठा करने के लिए उसे कुणाल पर नज़र रखनी होगी, लेकिन सीधे टकराना सही नहीं होगा।
ऋषभ से उसने कहा—
“हम एक नकली प्रोजेक्ट बनाएँगे। उसमें ऐसी जानकारियां डालेंगे जो असली न हों, लेकिन देखने में बिल्कुल असली लगें।”
ऋषभ की आँखों में चमक आ गई—
“और अगर वो प्रोजेक्ट बाहर गया, तो हमें पता चल जाएगा कि गद्दार कौन है।”
नकली प्रोजेक्ट – ऑपरेशन माया
दोनों ने एक हफ़्ते में “ऑपरेशन माया” नाम का डमी प्रोजेक्ट तैयार किया।
इसमें टेक्निकल डिटेल्स, नकली क्लाइंट्स और भारी-भरकम बजट रिपोर्ट शामिल थी।
सब कुछ इतना असली दिख रहा था कि कोई भी इसे असली मान ले।
कुणाल की चालाकी
तीसरे ही दिन, आरव को नोटिफिकेशन मिला—ऑपरेशन माया की फाइल किसी अज्ञात सर्वर पर अपलोड हो चुकी है।
IP ट्रेस करने पर फिर वही नाम—Kunal_Official।
आरव ने उस रात ऋषभ से कहा—
“अब वक़्त आ गया है कि ये खेल खत्म किया जाए।”
मुलाकात की रात
अगले दिन ऑफिस में एक मीटिंग बुलाई गई।
सारे कर्मचारी मौजूद थे।
आरव ने प्रोजेक्टर पर ऑपरेशन माया की फाइल दिखाते हुए कहा—
“ये प्रोजेक्ट सिर्फ तीन लोगों को पता था—मैं, ऋषभ… और कुणाल।”
सारे कमरे में सन्नाटा फैल गया।
कुणाल का चेहरा पीला पड़ गया, लेकिन उसने सँभलते हुए कहा—
“सर, मैं तो… मुझे नहीं पता ये कैसे…”
सबूत की मार
आरव ने तुरंत CCTV फुटेज चला दी, जिसमें कुणाल देर रात अपने केबिन में बैठा उसी फाइल पर काम कर रहा था।
साथ ही, साइबर टीम की रिपोर्ट भी सबके सामने रख दी।
ऋषभ ने ठंडी आवाज़ में कहा—
“भाई, अब बचने का कोई रास्ता नहीं है।”
गिरावट की शुरुआत
कुणाल को उसी दिन ऑफिस से बाहर कर दिया गया।
लेकिन ये मामला यहीं खत्म नहीं हुआ।
अगले ही हफ़्ते आरव को पता चला कि कुणाल ने पहले ही कई क्लाइंट्स को कंपनी छोड़ने पर मजबूर कर दिया था।
अब “ज़ीरो से शिखर तक” का सफर नए खतरे में था।
नुकसान का आंकलन
कुणाल के धोखे के कारण, कई अंतरराष्ट्रीय क्लाइंट्स ने ऑर्डर कैंसिल कर दिया था।
आरव ने अपने नोटबुक पर हर नुक़सान लिखना शुरू किया।
- 12 अंतरराष्ट्रीय ऑर्डर खो गए
- 5 नए प्रोजेक्ट्स अटक गए
- मार्केट वैल्यू गिरकर आधी रह गई
ऋषभ ने उसकी तरफ देखा और कहा—
“भाई, ये वक़्त है कि हम अपनी रणनीति पूरी तरह बदलें।”
आरव ने सिर हिलाया। वह जानता था कि ज़ीरो से शिखर तक का सफर आसान नहीं होता।
नई स्ट्रेटेजी
आरव ने तीन मुख्य बदलाव किए:
- डायरेक्ट मार्केटिंग और सोशल मीडिया स्ट्रेटेजी: हर प्रोडक्ट के पीछे कहानी और वीडियो क्लिप्स डालना।
- क्लाइंट रिलेशनशिप मैनेजमेंट मजबूत करना: छोटे क्लाइंट्स को पर्सनल कॉल और मीटिंग देना।
- रिस्क मितिगेशन टीम बनाना: हर प्रोजेक्ट में दो अतिरिक्त चेक्स और बैकअप बनाना।
सोशल मीडिया की ताकत
आरव ने इंस्टाग्राम, ट्विटर और फेसबुक पर नए अभियान चलाए।
- हर आर्टिसन का छोटा वीडियो
- उनके गांव और काम की कहानी
- “#ZeroSeShikharTak” कीटैग
वीडियो वायरल हो गए।
लोग कहते—
“ये लड़का सच में बदल रहा है भारत के गांवों की तस्वीर।”
पहले महीने में ही,
- 50,000 से ज्यादा नए फॉलोअर्स
- 1,000+ ऑर्डर
- और दो बड़े नए इंटरनेशनल क्लाइंट्स
पहला बड़ा ग्लोबल लॉन्च
तीसरे महीने में, लोकलविंग्स ने ग्लोबल लॉन्च इवेंट किया।
ऑनलाइन इवेंट में 20 देशों के लोग जुड़े।
आरव ने भाषण में कहा—
“जब हम ज़ीरो से शिखर तक की यात्रा शुरू करते हैं, तो रास्ता मुश्किल होता है। पर कोशिश, धैर्य और टीम वर्क से हर बाधा पार की जा सकती है।”
लाइव चैरिटी ऑर्डर में, हर खरीद पर गाँव के कारीगर को सीधे लाभ मिला।
इस पहल की खबर मीडिया में छा गई और लोकलविंग्स ब्रांड का ग्लोबल नाम बन गया।
एक नई पहचान
इस ग्लोबल सफलता के साथ ही, आरव ने सीखा:
- असली सफलता सिर्फ़ मुनाफ़े में नहीं
- बल्कि टीम, समाज और व्यक्तिगत संतुलन में होती है
- और सबसे बड़ा सबक—कभी हार न मानो, हमेशा उठो
क्लाइमेक्स में आरव की पहचान सिर्फ़ स्टार्टअप फाउंडर नहीं रही, बल्कि एक प्रेरक लीडर बन गई।
ग्लोबल विस्तार की तैयारी
लोकलविंग्स के ग्लोबल लॉन्च के बाद, आरव ने तय किया कि अब अंतरराष्ट्रीय मार्केट में पूरी तरह पैर पसारना होगा।
सिंगापुर, अमेरिका और यूरोप के क्लाइंट्स ने बड़े ऑर्डर देना शुरू किया।
लेकिन चुनौती थी—लॉजिस्टिक्स और टीम का विस्तार।
आरव ने कहा:
“हम अब सिर्फ़ इंडिया में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में लोकलविंग्स की पहचान बनाएँगे।”
विक्रम ने सुझाव दिया कि पहले छोटे देशों में टेस्ट मार्केटिंग करें, ताकि रिस्क कम रहे।
मोबाइल एप लॉन्च
आरव ने अपने टीम के साथ एक मोबाइल एप बनाने का निर्णय लिया।
इस एप में विशेष फीचर्स थे:
- प्रत्येक प्रोडक्ट के पीछे आर्टिसन की कहानी
- सीधे ऑर्डर करने का आसान तरीका
- लाइव ट्रैकिंग और रिव्यू सिस्टम
टीम ने 3 महीने तक दिन-रात काम किया।
अंतिम दिन, आरव ने एप का पहला डेमो दिखाया।
ऋषभ ने कहा:
“भाई, ये एप सिर्फ़ ऑर्डर नहीं, कहानी को भी बेच रहा है।”
सोशल मीडिया की नई स्ट्रेटेजी
एप के लॉन्च के साथ ही, आरव ने सोशल मीडिया पर नया अभियान चलाया—
- #ZeroSeShikharTak कैम्पेन
- आर्टिसन की लाइव स्टोरीज और behind-the-scenes वीडियो
- छोटे प्रतियोगिताएँ और giveaways
इस कैंपेन ने एप डाउनलोड और ऑर्डर को तेजी से बढ़ाया।
पहले हफ़्ते में ही 20,000+ लोग एप डाउनलोड कर चुके थे।
पहली बड़ी इंटरनेशनल मीटिंग
आरव ने अपनी टीम के साथ न्यूयॉर्क और लंदन की मीटिंग्स तय की।
क्लाइंट्स impressed हुए और बड़े कॉन्ट्रैक्ट्स के लिए तैयार हो गए।
आरव ने महसूस किया कि यह सिर्फ़ कंपनी की सफलता नहीं थी, बल्कि गांव के कारीगरों के सपनों की उड़ान थी।
सिखावन संदेश
इस हिस्से में आरव ने जाना—
- बड़े मार्केट में कदम रखने से पहले छोटे कदम जरूरी हैं
- टेक्नोलॉजी और कहानी का मिश्रण सफलता की चाबी है
- और सबसे अहम—कभी हार न मानो, हमेशा उठो
स्थिरता की ओर कदम
आरव और उसकी टीम ने पिछले साल में जितनी कठिनाइयाँ देखी, उससे सीख लेकर अब कंपनी को मजबूत किया।
ऑर्डर की डिलीवरी पर पूरी निगरानी, टीम के साथ नियमित मीटिंग्स और मार्केट रिसर्च ने लोकलविंग्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
ऋषभ ने मुस्कुराते हुए कहा—
“भाई, अब डर का नामो-निशान नहीं है। हम सच में ग्लोबल बन गए हैं।”
आरव ने सिर हिलाया और अपने दिल में कहा—
“यह वही ज़ीरो से शिखर तक का सफर है, जिसे मैंने सपने में भी सोचा था।”
टीम का जश्न
कंपनी के ऑफिस में एक छोटा समारोह रखा गया।
- सभी आर्टिसन और कर्मचारी आमंत्रित थे
- टीम ने पिछले साल की उपलब्धियों को साझा किया
- आरव ने सभी को धन्यवाद कहा और बोला—
“हमने साथ में हर तूफ़ान पार किया। यही हमारी असली ताकत है।”
गाँव और समाज के लिए योगदान
आरव ने तय किया कि कंपनी की कुछ कमाई सीधे गाँव के कारीगरों को जाएगी।
- उनके बच्चों की शिक्षा के लिए फंड
- स्वास्थ्य और कौशल प्रशिक्षण
- और नए प्रोडक्ट बनाने के लिए संसाधन
यह देखकर सभी गाँव वाले गर्व महसूस कर रहे थे।
एक बूढ़ी महिला ने कहा—
“बेटा, तुम्हारा सफर हमें भी प्रेरित करता है।”
आरव की आँखों में आँसू थे, लेकिन खुशी के।
आख़िरी संदेश
कहानी का सबसे बड़ा सबक यह था:
- संघर्ष के बिना सफलता असंभव है
- हर फेलियर एक सीख है
- और सबसे महत्वपूर्ण—कभी हार न मानो, हमेशा उठो
आरव का नाम अब सिर्फ़ स्टार्टअप फाउंडर नहीं रहा, बल्कि एक प्रेरक लीडर, समाज-सुधारक और ग्लोबल आइकॉन बन गया।
कहानी का अंत यही संदेश छोड़ता है:
“अगर आप अपनी मेहनत, धैर्य और जूनून से लगे रहें, तो ज़ीरो से शिखर तक का सफर कोई भी तय कर सकता है।”
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