पगडंडी से मंज़िल तक

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव बरुआ में रहने वाला अरुण बचपन से ही गरीब था। मिट्टी की दीवारों वाला घर, एक टूटी-फूटी चारपाई और बरसात में टपकती छत — यही उसकी दुनिया थी।
पिता खेतों में मज़दूरी करते थे और माँ दूसरों के घर बर्तन मांजती थी।

गाँव के बच्चे शाम को क्रिकेट खेलते, लेकिन अरुण के पास बैट तक नहीं था। उसकी जेब में हमेशा एक पुरानी डायरी और पेन रहता। वो खेत के किनारे बैठकर बड़े-बड़े सपने लिखता — “मैं एक दिन गाँव का नाम रोशन करूंगा।”


संघर्ष की शुरुआत

अरुण का स्कूल गाँव से 5 किलोमीटर दूर था। रोज़ सुबह नंगे पैर पगडंडी से चलते हुए वह स्कूल जाता। बरसात में वही पगडंडी कीचड़ में बदल जाती, फिर भी अरुण कभी छुट्टी नहीं लेता।
उसके दोस्त अक्सर कहते,
“इतनी मेहनत क्यों करता है? आखिर हम सब यहीं खेत में ही तो काम करेंगे।”

लेकिन अरुण के मन में एक आग थी।
एक दिन उसने टीचर से पूछा,
“सर, मैं बड़ा होकर इंजीनियर कैसे बन सकता हूँ?”
टीचर ने कहा,
“पढ़ाई जारी रख, और शहर जाकर प्रतियोगी परीक्षा दे।”


पहला झटका

दसवीं कक्षा में अरुण ने टॉप किया, लेकिन आगे पढ़ने के लिए पैसे नहीं थे। पिता ने कहा,
“बेटा, अब खेत में हाथ बंटा, घर चलाना ज़रूरी है।”
उस रात अरुण ने आसमान के नीचे बैठकर रोते हुए कसम खाई — “मैं रुकूंगा नहीं।”
वो दिन में खेत में काम करता और रात में पढ़ाई।


शहर की जंग

बारहवीं के बाद वह 500 रुपये लेकर लखनऊ चला गया। शुरुआत में खाने के भी पैसे नहीं थे, तो होटल में वेटर का काम किया।
दिन में नौकरी और रात में कोचिंग — यह सिलसिला 2 साल चला। कई बार नींद से गिरते हुए भी किताब हाथ में रहती।


पहली असफलता और सबक

पहली प्रतियोगी परीक्षा में अरुण असफल हो गया। वह टूट चुका था। माँ ने फोन पर कहा,
“बेटा, असफलता हार नहीं है, ये तो मंज़िल की पहली सीढ़ी है।”
माँ की आवाज़ ने उसके अंदर फिर से जोश भर दिया।


मंज़िल की जीत

दूसरे प्रयास में अरुण ने इंजीनियरिंग कॉलेज में स्कॉलरशिप पा ली। 4 साल बाद वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में चयनित हुआ और पैकेज सुनकर गाँव के लोग हैरान रह गए।
जब वह पहली बार कार में गाँव लौटा, तो पगडंडी पर दौड़ते हुए वही बच्चे उसे घेरने लगे। अरुण मुस्कुराया और बोला,
“मंज़िल हमेशा दूर लगती है, लेकिन एक-एक कदम चलते रहो तो पगडंडी भी सड़क बन जाती है।”

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